पंचतन्त्र के रचयिता :-
पं॰ विष्णु शर्मा प्रसिद्ध संस्कृत नीतिपुस्तक पंचतन्त्र के रचयिता थे। नीतिकथाओं में पंचतन्त्र का पहला स्थान है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र ८० वर्ष के करीब थी। वे दक्षिण भारत के महिलारोप्य नामक नगर में रहते थे।
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संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का स्थान:-
संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में नहीं रह गयी है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आस- पास निर्धारित की गई है। इस ग्रंथ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र लगभग ८० वर्ष थी। पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है:-
- मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
- मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
- काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
- लब्धप्रणाश (हाथ लगी चीज (लब्ध) का हाथ से निकल जाना (हानि))
- अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें ; हड़बड़ी में कदम न उठायें)
मनोविज्ञान, व्यवहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती ये कहानियाँ सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखती है तथा साथ ही साथ एक सीख देने की कोशिश करती है।
पंचतंत्र की कई कहानियों में मनुष्य-पात्रों के अलावा कई बार पशु-पक्षियों को भी कथा का पात्र बनाया गया है तथा उनसे कई शिक्षाप्रद बातें कहलवाने की कोशिश की गई है।
पंचतन्त्र की कहानियां बहुत जीवंत हैं।इनमें लोकव्यवहार को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है। बहुत से लोग इस पुस्तक को नेतृत्व क्षमता विकसित करने का एक सशक्त माध्यम मानते हैं। इस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रतिपादित होती है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है।
नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान है। पंचतंत्र ही हितोपदेश की रचना का आधार है। स्वयं नारायण पण्डित जी ने स्वीकार किया है-
पंचतन्त्रात्तथाऽन्यस्माद् ग्रंथादाकृष्य लिख्यते॥
-- श्लोक सं.९, प्रस्ताविका, हितोपदेश
पंचतन्त्र का रचनाकाल:-
नालंदा मंदिर में पंचतंत्र चित्रण, 7वीं शताब्दी सीई (कछुआ और कलहंस) |
विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास निर्धारित की जाती है। पंचतन्त्र की रचना किस काल में हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पंचतन्त्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों ने पंचतन्त्र के रचयिता एवं पंचतन्त्र की भाषा शैली के आधार पर इसके रचनाकाल के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए है।
महामहोपाध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पंचतन्त्र के रचयिता विष्णुशर्मा थे और विष्णुशर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम था। अतः पंचतन्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचना काल 300 ई.पू. माना जा सकता है। पर पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पंचतन्त्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है।
महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतन्त्र के प्रथम तन्त्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टिनीमत की फ्पर्यघ्कः स्वास्तरणम्य् इत्यादि आर्या देखी जाती है, अतः यदि विष्णुशर्मा पंचतन्त्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधर पर पंचतन्त्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।
हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना 200 ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतन्त्र में दिखाई देता है इसके आधर पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतन्त्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी।
इस प्रकार पंचतन्त्र का रचनाकाल विषयक कोई भी मत पूर्णतया सर्वसम्मत नहीं है।
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पंचतंत्र के संस्करण :-
संस्करण-पंचतन्त्र के चार संस्करण उपलब्ध है-
प्रथम संस्करण मूलग्रन्थ का पहलवी अनुवाद है जो अब सीरियन एवं अरबी अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।
द्वितीय संस्करण के रूप में पंचतन्त्र गुणाढ्यकृत ‘बृहत्कथा’ में दिखाई पड़ता है। ‘बृहत्कथा की रचना पैशाची भाषा में हुई थी किन्तु इसका मूलरूप नष्ट हो गया है और क्षेमेन्द्रकृत ‘बृहत्कथा मंजरी' तथा सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं।
तृतीय संस्करण में तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ॰ हर्टेल ने अत्यन्त श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण को खोज निकाला था। इनके अनुसार ‘तन्त्राख्यायिका’ या तन्त्राख्या ही पंचतन्त्र का मूलरूप है। यही आधुनिक युग का प्रचलित ‘पंचतन्त्र’ है।
चतुर्थ संस्करण दक्षिणी ‘पंचतन्त्र’ का मूलरूप है तथा इसका प्रतिनिधित्व नेपाली ‘पंचतन्त्र’ एवं ‘हितोपदेश’ करते हैं।
इस प्रकार ‘पंचतन्त्र’ एक ग्रन्थ न होकर एक विशाल साहित्य का प्रतिनिधि है।
विश्व-साहित्य में पंचतन्त्र का स्थान :-
पंचतन्त्र का विश्व में प्रसार |
विश्व-साहित्य में भी पंचतन्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इन अनुवादों में पहलवी भाषा का ‘करटकदमनक’ नाम का अनुवाद ही सबसे प्राचीन अनुवाद माना जाता है। इसकी लोकप्रियता का यह परिणाम था कि बहुत जल्द ही पंचतंत्र का ‘लेरियाई’ भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित किया गया, यह संस्करण 570 ई. में प्रकाशित हुआ था। फारसी से अरबी भाषा में इसका अनुवाद हुआ। अरबी से सन 1080 के लगभग इसका यूनानी भाषा में अनुवाद हुआ। फिर यूनानी से इसका अनुवाद लैटिन भाषा में पसिनस नामक व्यक्ति ने किया। अरब अनुवाद का एक उल्था स्पेन की भाषा में सन 1251 के लगभग प्रकाशित हुआ। जर्मन भाषा में पहला अनुवाद 15वीं शताब्दी में हुआ और उससे ग्रंथ का अनुवाद यूरोप की सब भाषाओं में हो गया। विंटरनित्ज़ के अनुसार जर्मन साहित्य पर पंचतन्त्र का अधिक प्रभाव देखा जाता है। इसी प्रकार ग्रीक की ईसप् की कहानियों का तथा अरब की 'अरेबिअन नाइट्स' आदि कथाओं का आधार पंचतन्त्र ही है। ऐसा माना जाता है कि पंचतन्त्र का लगभग 50 विविध भाषाओं में अब तक अनुवाद हो चुका है और इसके लगभग 200 संस्करण भी हो चुके है। यही इसकी लोकप्रियता का परिचायक है।
पंचतन्त्र का स्वरूप :-
पंचतन्त्र में पांच तन्त्र या विभाग है। (पंचानाम् तन्त्राणाम् समाहारः - द्विगुसमास) विभाग को तन्त्र इसलिए कहा गया है क्योंकि इनमें नैतिकतापूर्ण शासन की विधियाँ बतायीं गयीं हैं। ये तन्त्र हैं- मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति (मित्रलाभ), काकोलूकीयम् (सन्धि-विग्रह), लब्धप्रणाश एवं अपरीक्षितकारक।
संक्षेप में इन तन्त्रों की विषयवस्तु इस प्रकार है-
मित्रभेद :-
नीतिकथाओं में एक मुख्य कथा होती है और उसको पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथाएं होती हैं उसी प्रकार ‘मित्रभेद’ नामक इस प्रथम तन्त्र में अंगीकथा के पूर्व दक्षिण में महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति की कथा दी गई है जिसमें यह बताया गया है कि वे अपने मूर्ख पुत्रों के लिए कारण चिन्तित थे और इसलिए वे विष्णुशर्मा नामक विद्वान् को अपने पुत्रों को शिक्षित करने के सौंप देते है और विष्णुशर्मा उन्हें छः मास में ही कथाओं के माध्यम से सुशिक्षित करने में सफल होते हैं। तत्पश्चात् मित्रभेद नामक भाग की अंगी-कथा में, एक दुष्ट सियार द्वारा पिंगलक नामक सिंह के साथ संजीवक नामक बैल की शत्रुता उत्पन्न कराने का वर्णन है जिसे सिंह ने आपत्ति से बचाया था और अपने दो मन्त्रियों- करकट और दमनक के विरोध करने पर भी उसे अपना मित्र बना लिया था। इस तन्त्र में अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी गई है जैसे कि धैर्य से व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति का भी सामना कर सकता है अतः प्रारब्ध के बिगड़ जाने पर भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए-
त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदाचित् गतिमाप्नुयात्सः (मित्रभेद, श्लोक 345)
मित्रसम्प्राप्ति
इस तन्त्र में मित्र की प्राप्ति से कितना सुख एवं आनन्दप्राप्त होता है वह कपोतराज चित्रग्रीव की कथा के माध्यम से बताया गया है। विपत्ति में मित्र ही सहायता करता है-
सर्वेषामेव मर्त्यानां व्यसने समुपस्थिते।
वाड्मात्रेणापि साहाय्यंमित्रादन्यो न संदधे॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 12)
ऐसा कहा गया है कि मित्र का घर में आना स्वर्ग से भी अधिक सुख को देता है।
सुहृदो भवने यस्य समागच्छन्ति नित्यशः।
चित्ते च तस्य सौख्यस्य न किंचत्प्रतिमं सुखम्॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 18)
इस प्रकार इस तन्त्र का उपदेश यह है कि उपयोगी मित्र ही बनाने चाहिए जिस प्रकार कौआ, कछुआ, हिरण और चूहा मित्रता के बल पर ही सुखी रहे।
काकोलूकीय:-
इसमें युद्ध और सन्धि का वर्णन करते हुए उल्लुओं की गुहा को कौओं द्वारा जला देने की कथा कही गयी है। इसमें यह बताया गया है कि स्वार्थसिद्धि के लिए शत्रु को भी मित्र बना लेना चाहिए और बाद में धेखा देकर उसे नष्ट कर देना चाहिए। इस तन्त्र में भी कौआ उल्लू से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगवा देता है। इसलिए शत्रुओं से सावधन रहना चाहिए क्योंकि जो मनुष्य आलस्य में पड़कर स्वच्छन्दता से बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करता है- उसके रोकने की चेष्टा नहीं करता वह क्रमशः उसी (शत्रु अथवा रोग) से मारा जाता है-
य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरस्तं यदृच्छया।
रोग चाऽलस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते॥ (काकोलूकीय श्लोक 2)
लब्धप्रणाश :-
इस तन्त्र में वानर और मगरमच्छ की मुख्य कथा है और अन्य अवान्तर कथाएं हैं। इन कथाओं में यह बताया गया है कि लब्ध अर्थात् अभीष्ट की प्राप्ति होते होते कैसे रह गई अर्थात नष्ट हो गई। इसमें वानर और मगरमच्छ की कथा के माध्यम से शिक्षा दी गई है कि बुद्धिमान अपने बुद्धिबल से जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी वंचित रह जाता है।
अपरीक्षितकारक :-
पंचतन्त्र के इस अन्तिम तन्त्र अर्थात् भाग में विशेषरूप से विचार पूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर बल दिया है क्योंकि अच्छी तरह विचार किए बिना एवं भलीभांति देखे सुने बिना किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अपितु जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः अन्धनुकरण नहीं करना चाहिए। इस तन्त्र की मुख्य कथा में बिना सोचे समझे अन्धनुकरण करने वाले एक नाई की कथा है जिसको मणिभद्र नाम के सेठ का अनुकरण करजैन-संन्यासियों के वध के दोष पर न्यायाधीशों द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया। अतः बिना परीक्षा किए हुए नाई के समान अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए-
कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितम्।
तन्नरेण न कर्त्तव्यं नापितेनात्र यत् कृतम्॥ (अपरीक्षितकारक श्लोक-1)
इसमें यह भी बताया है कि पूरी जानकारी के बिना भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बाद में पछताना पड़ता है जैसे कि ब्राह्मण पत्नी ने बिना कुछ देखे खून से लथपथ नेवले को यह सोचकर मार दिया कि इस ने मेरे पुत्र को खा लिया है वस्तुतः नेवले ने तो सांप से बच्चे की रक्षा करने के लिए सांप को मारा था जिससे उसका मुख खून से सना हुआ था।
इसलिए कहा गया-
अपरीक्ष्य न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम्।
पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा॥ (अपरीक्षित कारक श्लोक-17)
इस प्रकार पंचतन्त्र एक उपदेशपरक रचना है। इसमें लेखकने अपनी व्यवहार कुशलता राजनैतिकपटुता एवं ज्ञान का परिचय दिया है। नीति-कथाओं के मानवेतर पात्र प्रायः दो प्रकार के होते हैं, सजीव प्राणी तथा अचेतन पदार्थ। पंचतन्त्र में भी ये दो प्रकार के पात्र देखे जाते हैं- पशुओं में सिंह, व्याघ्र, शृगाल, शशक, वृषभ, गधा, आदि, पक्षियों में काक, उलूक, कपोत, मयूर, चटक, शुक आदि तथा इतर प्राणियों में सर्प, नकुल, पिपीलिका आदि। इनके अतिरिक्त नदी, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, गुहा आदि भी अचेतन पात्र हैं, जिन पर कि मानवीय व्यवहारों का आरोप किया गया है। पंचतन्त्र में मानव को व्यवहार कुशल बनाने का प्रयास अत्यधिक सरल एवं रोचक शैली में किया गया है। पंचतन्त्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि-
"पंचतन्त्र एक नीति शास्त्र या नीति ग्रन्थ है- नीति का अर्थ जीवन में बुद्धि पूर्वक व्यवहार करना है। चतुरता और धूर्तता नहीं, नैतिक जीवन वह जीवन है जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं काविकास हो अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति हो जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, सत्कर्म, मित्रता एवं विद्या की प्राप्ति हो सके और इनका इस प्रकार समन्वय किया गया हो कि जिससे आनंद की प्राप्ति हो सके, इसी प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए, पंचतन्त्र में चतुर एवं बुद्धिमान पशु-पक्षियों के कार्य व्यापारों से सम्बद्ध कहानियां ग्रथित की गई हैं। पंचतन्त्र की परम्परा के अनुसार भी इसकी रचना एक राजा के उन्मार्गगामी पुत्रों की शिक्षा के लिए की गई है और लेखक इसमें पूर्ण सफल रहा है।"
पंचतंत्र-रामचन्द्र वर्मा :-
पांच तन्त्रों-अध्यायों में रचित होने के कारण इस ग्रन्थ का नाम ‘पञ्चतन्त्र’ है इस रचना का उद्देश्य स्वयं ग्रन्थकार के शब्दों में
‘‘कथाछलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते।’’
सरल, सुबोध और रोचक कहानियों के माध्यम से अबोधमति बालकों को राजनीति और लोक-व्यवहार के सिद्धान्तों से परिचित कराना और उन्हें इस क्षेत्र में निपुण बनाना है। अपनी व्यापक लोकप्रियता के कारण अनादिकाल से कहानी का मानव-जीवन से चोली-दामन का साथ रहा है। बच्चों में कहानी सुनने-पढ़ने की रुचि-प्रवृत्ति सदा से ही व्यसन के स्तर पर पहुंची हुई रही है। इसका कारण है- कहानी में पायी जाने वाली जिज्ञासा तथा उत्सुकता। जिस कहानी में यह तत्त्व जितना अधिक पुष्ट एवं समृद्ध होगा, वह कहानी उतनी ही अधिक सफल एवं उत्कृष्ट कहलायेगी। इस सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध कथा-लेखक जैनेन्द्र का कथन है— ‘सफल कहानी की परख यही है कि उसे बार-बार पढ़ने का मन करे और वह बार-बार पढ़ी जाये। एक बार पढ़कर फेंक दी जाने वाली कहानी को साहित्य की परिधि में समझना ही नहीं चाहिए।’
साहित्य की विधा अथवा काव्य का एक रूप कहानी भी है। मनोरञ्जन के माध्यम से व्यक्ति का ज्ञानवर्धन एवं पथ प्रदर्शन करना साहित्य का उद्देश्य है। इसी आधार पर कहा जाता है कि केवल मनोरञ्जन प्रस्तुत करनी वाली कहानी स्वल्पजीवी होती है। इसके विपरीत जीवन के किसी पक्ष को छूने वाली कहानी चिरजीवी और शाश्वत महत्त्व प्राप्त करने वाली होती है।
‘पञ्चतन्त्र’ की कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। इनमें न केवल जिज्ञासा और उत्सुकता का तत्त्व अत्यन्त पुष्ट एवं समृद्ध है, अपितु सत्य को सुन्दर बनाकर प्रस्तुत करने, अर्थात् मानव-जीवन के लिए शिव होने की प्रवृति भी प्रबल है। इन्हीं कारणों से अपने अस्तित्व में आने के समय से आज लगभग दो हज़ार वर्षों की अवधि तक इन कहानियों की लोकप्रियता न केवल अक्षुण्ण बनी हुई है, अपितु इसमें निरंतर एवं उत्तरोत्तर वृद्धि भी होती रही है। विश्व की अनेक भाषाओं में इस ग्रन्थ का अनुवाद एवं रूपान्तरण इसकी व्यापक उपयोगिता तथा लोकप्रियता का प्रबल प्रमाण है। अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि राजकुमारों के माध्यम से कोमल मति बालकों को राजनीतिक एवं लोक-व्यवहार में निपुण बनाने का आचार्य विष्णुशर्मा का प्रयत्न सचमुच सराहनीय रहा है तथा सभी बालकों के लिए वरदान स्वरूप है।
इसके अतिरिक्त भारतीय सभ्यता, संस्कृति, रीति-नीति, आचार-विचार तथा प्रथा-परम्परा का द्योतक ग्रन्थ होने के कारण ‘पञ्चतन्त्र’ को विशिष्ट महत्त्व प्रदान किया जाता है। यह ग्रन्थ समाज के सभी वर्गों के व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। इस ग्रन्थ में लेखक ने छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से दैनिक जीवन से सम्बन्धित धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक तथ्यों की जैसी सुन्दर, सरस और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है, वैसी किसी अन्य ग्रन्थ में मिलनी कठिन है। सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री सैमुअल ने पञ्चतन्त्र को मानव-जीवन के सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, हर्ष-विषाद, कलह-मैत्री तथा उत्थान-पतन में सच्चा मार्गदर्शक एवं अभिन्न साथी माना है। आप कैसी भी स्थिति में क्यों न हों, इस पुस्तक के पन्ने पलटिये, आपको कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य मिल जायेगा, जो आपकी समस्या के समाधान में सहायक और आपको तनावमुक्त करने वाला सिद्ध होगा। जीवन में नयी स्फूर्ति और नयी प्रेरणा देने वाला यह ग्रन्थ-रत्न संस्कृति का एक जाज्वल्यमान रत्न है।
संस्कृत के इस विश्वप्रसिद्ध गौरव-ग्रन्थ को हिन्दी के पाठकों तक पहुंचाने के लिए इसे सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि इसके पठन-पाठन से पाठक लाभान्वित होंगे।
ग्रन्थ का मंगलाचरण :-
एक पंचतंत्र पांडुलिपि पृष्ठ |
भारत में ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रन्थाकार द्वारा अपनी रचना के प्रारम्भ में अपने इष्टदेव के स्मरण-नमन के रूप में मंगलाचरण करने की एक परंपरा रही है। आचार्य विष्णु शर्मा ने भी इस परम्परा का पालन किया है। अपने मंगलाचरण में आचार्य विष्णु शर्मा सभी देवी-देवताओं से सबकी रक्षा करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं—ब्रह्मा, शिव, स्वामी कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यम, अग्नि, इन्द्र, कुबेर, चन्द्र, सूर्य, सरस्वती, समुद्र, चारों युग (सत्युग, त्रेता, द्वापर और कवियुग), पर्वत, वायु, पृथ्वी, सर्प, कपिल आदि सिद्ध, गंगा आदि नदियां, दोंनों अश्विनीकुमार (सूर्य के पुत्र तथा देवों के चिकित्सक), लक्ष्मी, दिति-पुत्र (दैत्य), अदिति-पुत्र (देवता), चण्डिका आदि मातृकाएं, चारों वेद (ऋग्, यजु, साम तथा अथर्वण), काशी मथुरा आदि तीर्थ, अश्वमेध, राजसूय यज्ञ, प्रमथ आदि गण, अष्टवसु, नारद, व्यास आदि मुनि तथा बुध, शनि आदि नवग्रह—ये सब सदैव हम सबकी रक्षा करें।
(क) प्रस्तुत मंगलाचरण एकदम अनोखा है। प्रायः रचनाकार मंगलाचरण में अपने किसी एक इष्टदेव का उल्लेख करते हैं, किन्तु यहां लेखक ने इष्टदेवों की झड़ी लगा दी है।
(ख) त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उल्लेख किया जाता है। आचार्य विष्णु शर्मा द्वारा इस क्रम का निर्वाह करना तो दूर रहा, उन्होंने शिव और विष्णु के मध्य में कुमार (कार्तिकेय) को सम्मिलित कर लिया है।
(ग) (i) इन्द्र, अग्नि तथा वरुण आदि देवों का अलग से उल्लेख करने के पश्चात् फिर से अदिति-पुत्रों का उल्लेख किया गया है। यही सब अदिति के पुत्र हैं (ii) इसी प्रकार सूर्य व चन्द्र का अलग से उल्लेख करके, पुनः ग्रहों का नाम लिया गया है। सूर्य और चन्द्र भी तो ग्रह हैं।
(घ) पर्वतों, समुद्रों, नदियों, तीर्थों, युगों, यज्ञों, वसुओं और गणों की आराधना केवल इसी मंगलाचरण में देखने को मिलती है। ऐसा किसी अन्य कवि ने नहीं किया।
(ड़) दिति-पुत्रों-दैत्यों-से रक्षा की प्रार्थना आश्चर्यजनक है।
मंगलाचरण के उपरान्त ग्रन्थकार अपने से पूर्ववर्ती राजनीतिशास्त्र के प्रणेता विद्वानों को प्रणाम निवेदन करता है—मैं नीतिशास्त्र के विद्वान् लेखकों—महाराज मनु, देवगुरु बृहस्पति, दैत्यों के गुरु शुक्रचार्य, महर्षि पराशर, उनके पुत्र वेदव्यास तथा प्रकाण्ड चाणक्य-को सादर प्रणाम निवेदन करता हूं।
नवे वाचस्पतये शुकाय पराशराय ससुताय।
चाणक्याय च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्रकर्तृभ्यः।।
अपने पूर्ववर्ती नीतिशीस्त्र के विद्वानों के उल्लेख के द्वारा आचार्य विष्णु शर्मा ने अपने ग्रन्थ की विषय-सामग्री के स्रोत का परिचय दिया है। लेखक उपर्युक्त पूर्ववर्ती राजनीतिशास्त्र के निर्माताओं के ग्रन्थों से सामग्री लेकर अपने ग्रन्थ—पञ्चतन्त्र—की रचना कर रहा है। लेखक महोदय अगले पद्य में इसी तथ्य की स्वीकृति करते हुए कहते हैं—
मैं विष्णु शर्मा उपर्युक्त मनु आदि विद्वानों के ग्रन्थों तथा अन्यान्य विद्वानों के उपलब्ध राजनीति विषयक ग्रन्थों की समग्र सामग्री को देख-परखकर एवं उनके सार तत्त्व को ग्रहण कर पांच तन्त्रों (अध्यायों) वाले अपने मनोहर ग्रन्थ-पञ्चतन्त्र-की रचना कर रहा हूं।
स्पष्ट है कि ‘पञ्चतन्त्र’ राजनीतिशास्त्र के पूर्ववर्ती लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों की ज्ञात-अज्ञात रचनाओं के सार-तत्त्व का संग्रह है। इस प्रकार इसका आधार सुदृढ़ एवं परिपुष्ट है तथा विषय-सामग्री पूर्णतः प्रामाणिक एवं व्यावहारिक है। इस रूप में इस ग्रंथ की उपयोगिता और महत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाती है।
सुनने में आता है कि भारत की दक्षिण दिशा में स्थिति महिलारोप्य नामक नगर किसी राज्य की राजधानी था। यहां का राजा अमरसिंह ऐसा प्रचण्ड प्रतापी महावीर था कि दूर-समीप के अनेक छोटे-बड़े सामन्त उसके वशवर्ती होने और उसके चरणों में सिर झुकाने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते थे। इसके साथ ही राजा अमरसिंह सभी कलाओं का मर्मज्ञ और उनके विकास में तत्पर रहने वाला था। इसके अतिरिक्त वह विनम्र, उदार और दानी भी था। उसके द्वार से कोई याचक ख़ाली नहीं लौटता था।
इस तेजस्वी, कलाप्रेमी और दानशील राजा अमरसिंह को भगवान् ने तीन पुत्र दिये थे। उनके नाम थे—बहुशक्ति, उग्रशेन और अनन्तशक्ति। दुर्भाग्यवश ये तीनों पुत्र महामूर्ख थे। तीनों में एक भी राज्य का उत्तराधिकारी बनने के योग्य नहीं था, इसलिए राजा का चिन्तित और व्यथित होना स्वाभाविक ही था। इसलिए इतने विशाल राज्य का अधिपति होने पर भी अमरसिंह का मन अशान्त और दुखी था।
अपने मंत्रियों को बुलाकर राजा ने अपनी चिन्ता और व्यथा से उन्हें अवगत कराते हुए कहा—बन्धुओं ! आप मेरे और मेरे राज्य के शुभचिन्तक एवं रक्षक हैं। आप लोगों से छिपा नहीं है कि मेरे तीनों पुत्र जड़-बुद्धि एवं विवेकहीन हैं। इसलिए इतने बड़े राज्य का स्वामी होने पर भी मुझे दिन-रात चैन न आना स्वाभाविक ही है। आप लोग नीतिकारों के इस सत्य कथन से पूर्णतः सहमत होंगे—
अजातमृतमूर्खभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम्।
यतस्तौ स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।
कि पुत्र का उत्पन्न न होना, पुत्र का उत्पन्न होकर मर जाना तथा उत्पन्न पुत्र का निपट जड़ होना—इन तीनों स्थितियों में तीसरी अथवा अन्तिम स्थिति-पुत्र का मूर्ख निकलना—प्रथम दोनों स्थितियों की अपेक्षा कहीं अधिक विषम तथा दुःखद होने से अवाञ्छनीय है।
प्रथम दोनों की अपेक्षा तीसरी स्थिति की अपेक्षाकृत अधिक भयंकरता के कारण की चर्चा करते हुए राजा ने कहा—निस्सन्दोह, पुत्र का उत्पन्न न होना अथवा उत्पन्न होकर मर जाना दुःखद एवं चिन्तनीय स्थितियां हैं, परन्तु यह दुःख स्वल्पकाल का है। समय बीतने के साथ-साथ दुःख की मात्रा भी क्रमशः घटती जाती है। इसीलिए समय को सभी प्रकार के घावों की मरहम कहा गया है, किन्तु पुत्र मूर्ख होना जीवन-भर सताने-तड़पाने और जलाने वाली चिन्ता है। यदि मेरे यहां भी पुत्र उत्पन्न न होते, तो मैं अवश्य दुखी होता, पुत्र-प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील भी होता, पुत्र के मर जाने पर छाती पीटता और शायद विक्षिप्त भी हो जाता, किन्तु यह स्थिति कुछ समय के लिए ही होती, तत्पश्चात् या तो मैं दुःख को भूल जाता अथवा दुःख मुझे भुला देता, किन्तु यहां दुःख न केवल सामने खड़ा मुझे चिढ़ा रहा है, अपितु दुःख की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। .............
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