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दक्षिण के किसी जनपद में एक नगर था "महिलारोप्य"। वहाँ का राजा अमरशक्ति बड़ा ही पराक्रमी तथा उदार था। संपूर्ण कलाओं में पारंगत राजा अमरशक्ति के तीन पुत्र थे :- बहुशक्ति, उग्रशक्ति तथा अनंतशक्ति। राजा स्वयं जितना ही नीतिज्ञ, विद्वान्, गुणी और कलाओं में पारंगत था, दुर्भाग्य से उसके तीनों पुत्र उतने ही उद्दंड, अज्ञानी और दुर्विनीत थे।
अपने पुत्रों की मूर्खता और अज्ञान से चिंतित राजा ने एक दिन अपने मंत्रियों से कहा, ''ऐसे मूर्ख और अविवेकी पुत्रों से अच्छा तो निस्संतान रहना होता। पुत्रों के मरण से भी इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी मूर्ख पुत्र से होती है। मर जाने पर तो पुत्र एक ही बार दुःख देता है, किंतु ऐसे पुत्र जीवन-भर अभिशाप की तरह पीड़ा तथा अपमान का कारण बनते हैं। हमारे राज्य में तो हजारों विद्वान्, कलाकार एवं नीतिविशारद महापंडित रहते हैं। कोई ऐसा उपाय करो कि ये निकम्मे राजपुत्र शिक्षित होकर विवेक और ज्ञान की ओर बढ़ें।"
मंत्री विचार-विमर्श करने लगे। अंत में मंत्री सुमति ने कहा, “ महाराज, व्यक्ति का जीवन-काल तो बहुत ही अनिश्चित और छोटा होता है। हमारे राजपुत्र अब बड़े हो चुके हैं। विधिवत् व्याकरण एवं शब्दशास्त्र का अध्ययन आरंभ करेंगे तो बहुत दिन लग जाएँगे। इनके लिए तो यही उचित होगा कि इनको किसी संक्षिप्त शास्त्र के आधार पर शिक्षा दी जाए, जिसमें सार-सार ग्रहण करके निस्सार को छोड़ दिया गया हो; जैसे हंस दूध तो ग्रहण कर लेता है, पानी को छोड़ देता है। ऐसे एक महापंडित विष्णु शर्मा आपके राज्य में ही रहते हैं। सभी शास्त्रों में पारंगत विष्णु शर्मा की छात्रों में बड़ी प्रतिष्ठा है। आप तो राजपुत्रों को शिक्षा के लिए उनके हाथों ही सौंप दीजिए।"
राजा अमरशक्ति ने यही किया। उन्होंने महापंडित विष्णु शर्मा का आदर-सत्कार करने के बाद विनय के साथ अनुरोध किया, “आर्य, आप मेरे पुत्रों पर इतनी कृपा कीजिए कि इन्हें अर्थशास्त्र का ज्ञान हो जाए। मैं आपको दक्षिणा में सौ गाँव प्रदान करूँगा।"
आचार्य विष्णु शर्मा ने निर्भीक स्वर में कहा, “ मैं विद्या का विक्रय नहीं करता, देव! मुझे सौ गाँव लेकर अपनी विद्या बेचनी नहीं है। किंतु मैं वचन देता हूँ कि छह मास में ही आपके पुत्रों को नीतियों में पारंगत कर दूँगा। यदि न कर सकूँ तो ईश्वर मुझे विद्या से शून्य कर दे!”
महापंडित की यह विकट प्रतिज्ञा सुनकर सभी स्तब्ध रह गए।
राजा अमरशक्ति ने मंत्रियों के साथ विष्णु शर्मा की पूजा-अभ्यर्थना की और तीनों राजपुत्रों को उनके हाथ सौंप दिया।
राजपुत्रों को लेकर विष्णु शर्मा अपने आवास पर पहुँचे। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार छह मास में ही उन्हें अर्थनीति में निपुण करने के लिए एक अत्यंत रोचक ग्रंथ की रचना की। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र ८० वर्ष के करीब थी।
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पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है :-
१।मित्रभेद(मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
२।मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
३।संधि-विग्रह/काकोलूकियम (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
४।लब्धप्रणाशम् (मृत्यु या विनाश के आने पर; यदि जान पर आ बने तो क्या?)
५।अपरीक्षितकारकम्(जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; हड़बड़ी में क़दम न उठायें)
इसी कारण उस ग्रंथ का नाम 'पंचतंत्र' प्रसिद्ध हो गया।
लोक-गाथाओं से उठाए गए दृष्टांतों से भरपूर इस रोचक ग्रंथ का अध्ययन करके तीनों अशिक्षित और उद्दंड राजपुत्र ब्राह्मण की प्रतिज्ञा के अनुसार छह मास में ही नीतिशास्त्र में पारंगत हो गए।
मनोविज्ञान, व्यवहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती ये कहानियाँ सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखती है तथा साथ ही साथ एक सीख देने की कोशिश करती है।
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