हिन्दू संस्कृति में वट सावित्री व्रत का महत्व बताया गया है। विवाहित महिलाएं पति की दीर्घायु और सुखी जीवन के लिए इस व्रत को रखती हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार सच्चे मन से वट सावित्री का व्रत जो महिलाएं रखती हैं उनके पति की आयु बढ़ती है। सनातन संस्कृति के अनुसार व्रत-उपवास का पालन अपने पति की दीर्घायु और सुखद वैवाहिक जीवन के लिए महिलाएं करती हैं। चलिए इस बार वट सावित्री व्रत कब है, इसके मुहूर्त, व्रत विधि और व्रत कथा के बारे में बताते हैं।
वट सावित्री व्रत कब है?
हिन्दू पंचांग के मुताबिक ज्येष्ठ महीने की अमावस्या तिथि पर वट सावित्री व्रत होता है। इस बार 22 मई को ज्येष्ठ महीने की अमावस्या तिथि आ रही है। इसका अर्थ यह है कि 22 मई को वट सावित्री व्रत रखा जाएगा।
वट सावित्री व्रत तिथि और शुभ मुहूर्त | Vat Savitri Vrat Tithi and Subha Muhurat:-
वट सावित्री अमावस्या तिथि :- 22 मई 2020, शुक्रवार।
अमावस्या तिथि प्रारम्भ :- मई 21, 2020 को रात्रि 09:35 बजे से,
अमावस्या तिथि समाप्त :- मई 22, 2020 को रात्रि 11:08 बजे तक।
क्या है वट सावित्री व्रत का महत्व :-
ज्येष्ठ माह की अमावस्या को वट सावित्री व्रत के पूजन का विधान है। इस दिन महिलाएँ अपने सुखद वैवाहिक जीवन की कामना से वटवृक्ष की पूजा-अर्चना कर व्रत करती हैं। वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशेष महत्व माना गया है।यह व्रत स्कन्द और भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को और निर्णयामृतादि के अनुसार अमावस्या को किया जाता है। भारत देश में प्रायः वट सावित्री व्रत अमावस्या को ही होता है। संसार की सभी स्त्रियों में से ऐसी कोई शायद ही हुई होगी, जो सावित्री के समान अपने अखण्ड पतिव्रत और दृढ़ प्रतिज्ञा के प्रभाव से यमद्वार पर गये हुए पति को सदेह लौटा लायी हो। अतः विधवा, सधवा, बालिका, वृद्धा, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को सावित्री का व्रत अवश्य करना चाहिए। जैसा कि धर्म का वचन है-
नारी वा विधवा वापि पुत्रीपुत्रविवर्जिता।
सभर्तृका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतमिदं शुभम्।।
वट / बरगद वृक्ष का महत्व :-
इस संसार में अनेक प्रकार के वृक्ष है उनमें से बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। शास्त्रानुसार 'वट मूले तोपवासा' ऐसा कहा गया है। वट वृक्ष तो दीर्घायु और अमरत्व का प्रतीक है। पुराण के अनुसार बरगद में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का निवास होता है। मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोवांक्षित फल की प्राप्ति शीघ्र ही होती है।
वट वृक्ष अपनी विशालता तथा दीर्घायु के लिए लोक में प्रसिद्ध होने से सुहागन महिलाएं वटवृक्ष की पूजा अपने पति के दीर्घायु होने की कामना के लिए करती है जिससे वट की तरह ही उनका पति भी दीर्घायु और विशाल बने रहे।
वटवृक्ष की अन्य विशेषताए :-
मृत्यु के देवता यमराज ने जब सावित्री के पति सत्यवान के प्राण का हरण किये तब वटवृक्ष के नीचे तीन दिन तक सावित्री और यमराज देव के मध्य शास्त्रार्थ हुआ था। जिसके बाद प्रसन्न होकर यमराज ने सावित्री के पति को पुनर्जीवित कर दिया था। वही से वट वृक्ष / बरगद का भी संबंध कथा से जुड़ गया और बरगद का महत्त्व बढ़ गया।
मान्यता है कि प्रयाग में प्रसिद्ध अक्षय वट के नीचे प्रभु श्रीराम, सीताजी एवं लक्ष्मणजी ने विश्राम किया था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नृसिंह, नील एवं माधव का निवास स्थान वटवृक्ष है।
वटवृक्ष का सम्बन्ध शिव तथा शनि देव से भी माना जाता है। दोनों ही देव न्याय प्रिय है।
स्कन्दपुराण में कहा गया है - 'अश्वत्थरूपी विष्णु: स्याद्वरूपी शिवो यत:' अर्थात् पीपलरूपी विष्णु व जटारूपी शिव हैं। वटवृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा जी, तने में विष्णु और डालियों एवं पत्तों में शिव का वास होता है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा कहने और सुनने से मनोकामना पूरी होती है।
सावित्री का महत्त्व :-
भारतीय संस्कृति में सावित्री नाम का चरित्र लोकविश्रुत है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कथा के अनुसार भद्र देश के राजा अश्वपति को कोई भी संतान नहीं थी। उन्होंने संतान पाने के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम निरन्तर चलता रहा। इसके बाद सावित्री देवी प्रकट होकर वर दिया कि " राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या की उत्पत्ति होगी।" सावित्री देवी की आशीर्वाद से जन्म लेने के कारण कन्या का नाम सावित्री रखा गया।
कन्या बहुत ही बुद्धिमान तथा रूपवान थी। उनके लिए योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी रहते थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे, क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था।साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान वेद के ज्ञाता थे और अल्पायु थे। जिसके चलते नारद मुनि ने सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी, परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह किया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की जिसका फल मिला जो हम सभी सत्यवान- सावित्री कथा के रूप में जानते हैं।
वट सावित्रि व्रत पूजा विधि | Vat Savitri Vrat Pooja Vidhi:-
- इस दिन प्रातःकाल घर की सफाई कर नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्त्रियां केशों सहित स्नान करें।
- वट सावित्री व्रत में सभी स्त्रियां सौलह सिंगार करती हैं।
- तत्पश्चात पवित्र जल का पूरे घर में छिड़काव करें।
- तत्पश्चात एक बांस की टोकरी में सप्त धान्य या रेत भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करें।
- ब्रह्मा के वाम-पार्श्व में सावित्री की मूर्ति स्थापित करें।
- इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियाँ स्थापित करके दोनों टोकरियाँ वट वृक्ष के नीचे रखनी चाहिए।
- सर्वप्रथम ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करना चाहिए।
- अब निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें : -
अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।
पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥
- तत्पश्चात सावित्री तथा सत्यवान की पूजा करें तथा वट के वृक्ष को पानी दें ।
- इसके बाद निम्न श्लोक से वट वृक्ष की प्रार्थना करें -
यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥
- जल, फूल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, गुड़ तथा धूप-दीप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है ।
- वट वृक्ष को जल चढ़ा कर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा करें ।
- वट के पत्तों के गहने पहन कर वट - सावित्री की कथा सुननी चाहिए।
- भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर अपनी सास को दें तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।
- यदि सास दूर हो तो बायना बनाकर वहां भेज दें।
- वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं।
- पूजा के समाप्त होने पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करनी चाहिए।
- यदि आपके आस-पास कोई वट वृक्ष नहीं हो तो दीवार पर वट वृक्ष की तस्वीर लगा कर श्रद्धा और आस्था से पूजा करें।
- अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें : -
मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।
- इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करें अथवा औरों को सुनाएं।
- स्त्रियाँ ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती और व्रत तोड़ती हैं।
इसके पीछे यह मिथक है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को जीवित कर दिए तब सावित्री ने अपने पति सत्यवान को जल पिलाकर स्वयं वटवृक्ष की बौंडी खाकर जल ग्रहण की थी।
नोट :- विशेष रूप में इस पूजन में स्त्रियाँ चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूड़ी और बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ा देती हैं। वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वृक्ष की बारह परिक्रमा करती है और हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती है और सूत तने पर लपेटती जाती हैं। परिक्रमा के पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। उसके बाद बारह कच्चे धागा वाली एक माला वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को अपने गले में डालती हैं। पुनः छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक स्वयं पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब पति से आशीर्वाद लेकर व्रत तोड़ती हैं।
वट सावित्री व्रत कथा :-
कथा के अनुसार सावित्री ने अपने पति की प्राण रक्षा के लिए निराहार व्रत किया और विष्णु की आराधना करने लगी। जब अमावस्या के दिन सत्यवान का प्राण लेने यमराज आए, तब सावित्री की भक्ति से प्रसन्न होकर सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे दिया। जब यमराज पति का प्राण लेकर जाने लगे, तो वह पीछे लग गई। आखिरकार यमराज ने प्राण लौटाना पड़ा।
सावित्री सत्यवान कथा :-
महाभारत के वनपर्व में सावित्री और सत्यवान की कथा का वर्णन मिलता है। वन में युधिष्ठिर मार्कण्डेय मुनि से पूछते है कि क्या कोई अन्य नारी भी द्रोपदी की जैसे पतिव्रता हुई है जो पैदा तो राजकुल में हुई है पर पतिव्रत धर्म निभाने के लिए जंगल-जंगल भटक रही है। तब मार्कण्डेय मुनि युधिष्ठर से कहते है की पहले भी सावित्री नाम की एक कन्या हुई थी जो इससे भी कठिन पतिव्रत धर्म का पालन कर चुकी है तब युधिष्ठिर मुनि से आग्रह करते है की कृप्या वह कथा मुझे सुनाये।
मुनि कथा सुनाते हुए कहते है :-
एक समय मद्र देश में अश्वपति नामक परम ज्ञानी राजा राज करते था। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी के साथ सावित्री देवी का विधिपूर्वक व्रत तथा पूजन किया और पुत्री होने का वर प्राप्त किया । इस पूजा के फल से उनके यहाँ सर्वगुण संपन्न सावित्री का जन्म हुआ ।
सावित्री जब विवाह योग्य हुई तो राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा और अपने पति को तलाशने के लिए भेज दिया ।एक दिन महर्षि नारद जी राजा अश्वपतिके यहाँ आये हुए थे तभी सावित्री अपने वर का चयन करके लौटी। उसने आदरपूर्वक नारद जी को प्रणाम किया। नारद जी के पूछने पर सावित्री ने कहा - " राजा द्युमत्सेन, जिनका राज्य हर लिया गया है, जो अंधे होकर अपनी पत्नी के साथ वनों में भटक रहे हैं, उन्हीं के इकलौते आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपने पतिरूप में वरण किया हैं।"
तब नारद जी ने सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहों की गणना करके उसके भूत, वर्तमान तथा भविष्य को देख कर राजा से कहा -" राजन ! तुम्हारी कन्या ने निःसन्देह बहुत योग्य वर का चुनाव किया हैं। सत्यवान गुनी तथा धर्मत्मा हैं। वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परन्तु एक भारी दोष है । वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद अर्थात जब सावित्री बारह वर्ष की हो जाएगी उसकी मृत्यु हो जाएगी।
नारद जी की ऐसी भविष्यवाणी सुनकर राजा से अपनी पुत्री को अन्य वर खोजने के लिए कहा। इस पर सावित्री ने कहा -" पिताजी ! आर्य कन्याएं जीवन में एक ही बार अपने पति का चयन करती है । मैंने भी सत्यवान को मन से अपना पति स्वीकार कर लिया है, अब चाहे वो अल्पायु हो या दीर्घायु, मैं किसी अन्य को हृदय में स्थान नहीं दे सकती।"
सावित्री ने आगे कहा - " पिताजी, आर्य कन्याएं अपना पति एक बार चुनती है।राजा एक बार ही आज्ञा देते है, पण्डित एक बार प्रतिज्ञा करते है तथा कन्यादान भी एक बार किया जाता है।अब चाहे जो हो सत्यवान ही मेरा पति होगा।"
सावित्री के ऐसे दृढ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया।सावित्री ने नारद जी से अपने पति की मृत्यु का समय ज्ञात कर लिया था। सावित्री अपने पति और सास - ससुर की सेवा करती हुई वन में रहने लगी ।
समय बीतता गया और सावित्री बारह वर्ष की हो गयी। नारद जी के वचन उसको दिन-प्रतिदिन परेशान करते रहे। आखिर जब नारदजी के कथनानुसार उसके पति के जीवन के तीन दिन बचें, तभी से वह उपवास करने लगी। नारद जी द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। प्रतिदिन की भाटी उस दिन भी सत्यवान लकड़ियां काटने के लिए चला तो सास-ससुर से आज्ञा लेकर वह भी उसके साथ वन में चल दी ।
वन में सत्यवान ने सावित्री को मीठे-मीठे फल लेकर दिये और स्वयं एक वृक्ष पर लकड़ियां काटने के लिए चढ़ गया । वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह वृक्ष से निचे उतर आया। सावित्री ने उसे पास के बड़ के वृक्ष के नीचे लिटाकर सर अपनी गोद में रख लिया।सावित्री का हृदय काँप रहा था।
तभी उसने दक्षिण दिशा से यमराज को आते देखा।यमराज और उनके दूत धर्मराज सत्यवान के जीव को लेकर चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल पड़ी। पीछा करती सावित्री को यमराज ने समझकर वापस लौट जाने को कहा । परन्तु सावित्री ने कहा - " हे यमराज ! पत्नी के पत्नीत्व की सार्थकता इसी में है कि वह पति का छाया के सामान अनुसरण करे। पति के पीछे जाने जाना ही स्त्री धर्म है । पतिव्रत के प्रभाव से और आपकी कृपा से कोई मेरी गति नहीं रोक सकता यह मेरी मर्यादा है ।इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना आपके लिए शोभनीय नहीं है ।"
सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने उससे उसके पति के प्राणों के अतिरिक्त कोई वरदान मांगने को कहा । सावित्री ने यमराज से अपने सास-ससुर की आँखों की खोई हुई ज्योति तथा दीर्घायु मांग ली ।यमराज "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए। फिर भी सावित्री ने यमराज का पीछा नहीं छोड़ा ।यमराज ने उसे फिर वापस जाने को कहा।इसपर सावित्री ने कहा -" हे धर्मराज !मुझे अपने पति के पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है।पति के बिना नारी जीवन को कोई सार्थकता नहीं है ।हम पति-पत्नी भिन्न-भिन्न मार्ग कैसे जा सकते है ।पति का अनुगमन मेरा कर्तत्व है।"
यमराज ने सावित्री के पतिव्रत धर्म की निष्ठा देख कर पुनः वर मांगने को कहा। सावित्री ने अपने सास-ससुर के खोये हुए राज्य की प्राप्ति तथा सौ भाइयों की बहन होने का वर माँगा । यमराज पुनः "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए। परन्तु सावित्री अब भी यमराज का पीछा किये जा रही थी। यमराज ने फिर से उसे वापस लौट जाने को कहा, परन्तु सावित्री अपने प्रण पर अड़िग रही।
तब यमराज ने कहा -" हे देवी ! यदि तुम्हारे मन में अब भी कोई कामना है तो कहो। जो माँगोगी वही मिलेगा। " इस पर सावित्री ने कहा- "यदि आप सच में मुझ पर प्रसन्न है और सच्चे हृदय से वरदान देना चाहते है तो मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान दें।" यमराज "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए।
यमराज ने पीछे मुड़कर देखा और सावित्री से कहा- " अब आगे मत बढ़ो। तुम्हे मुंहमांगा वर दें चूका हूँ, फिर भी मेरा पीछा क्यों कर रही हो?
सावित्री बोली - "धर्मराज ! अपने मुझे सौ पुत्रों की माँ होने का वरदान तो दें दिया, पर क्या मैं पति के बिना संतान को जन्म दें सकती हूँ? मुझे मेरा पति वापस मिलना ही चाहिए, तभी मैं आपका वरदान पूरा कर सकूँगी। "
सावित्री की धर्मनिष्ठा, पतिभक्ति और शक्तिपूर्ण वचनों की सुनकर यमराज नें सत्यवान के जीव को मुक्त कर दिया । सावित्री को वर देकर यमराज अंर्तध्यान हो गए । सावित्री उसी वट वृक्ष के नीचे पहुंची जहाँ सत्यवान का शरीर पड़ा था। सावित्री ने प्रणाम करके जैसे ही वट वृक्ष की परिक्रमा पूर्ण की वैसे ही सत्यवान के मृत शरीर जीवित हो उठा। दोनों हर्षातुर से घर की ओर चल पड़े।
प्रसन्नचित सावित्री अपने पति सहित सास-ससुर के पास गई।उनकी नेत्र ज्योति वापस लौट आई थी ।उनके मंत्री उन्हें खोज चुके थे ।राजा द्युमत्सेन ने पुनः अपना राज सिंहासन संभाल लिया था।
उधर महाराज अश्वसेन सौ पुत्रों के पिता हुए और सावित्री सौ भाइयों की बहन। यमराज के वरदान से सावित्री सौ पुत्रों की माँ बनी। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत का पालन करते हुए अपने पति के कुल एवं पितृकुल दोनों का कल्याण कर दिया। सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज सुख भोगते रहे और चारों दिशाओं में सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति गूंज उठी ।
राजा अश्वपति अपनी बेटी सावित्री को अपने लिए एक पति का चयन करने के लिए कहते हैं। (सौजन्य: गीता प्रेस द्वारा हिंदी में महाभारत) |
सावित्री जब विवाह योग्य हुई तो राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा और अपने पति को तलाशने के लिए भेज दिया ।एक दिन महर्षि नारद जी राजा अश्वपतिके यहाँ आये हुए थे तभी सावित्री अपने वर का चयन करके लौटी। उसने आदरपूर्वक नारद जी को प्रणाम किया। नारद जी के पूछने पर सावित्री ने कहा - " राजा द्युमत्सेन, जिनका राज्य हर लिया गया है, जो अंधे होकर अपनी पत्नी के साथ वनों में भटक रहे हैं, उन्हीं के इकलौते आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपने पतिरूप में वरण किया हैं।"
सावित्री ने सत्यवान से अपने पिता से शादी करने का अपना फैसला सुनाया और ऋषि नारद ने इसे एक भयानक अप-शगुन घोषित कर दिया। (सौजन्य: गीता प्रेस द्वारा महाभारत) |
तब नारद जी ने सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहों की गणना करके उसके भूत, वर्तमान तथा भविष्य को देख कर राजा से कहा -" राजन ! तुम्हारी कन्या ने निःसन्देह बहुत योग्य वर का चुनाव किया हैं। सत्यवान गुनी तथा धर्मत्मा हैं। वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परन्तु एक भारी दोष है । वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद अर्थात जब सावित्री बारह वर्ष की हो जाएगी उसकी मृत्यु हो जाएगी।
नारद जी की ऐसी भविष्यवाणी सुनकर राजा से अपनी पुत्री को अन्य वर खोजने के लिए कहा। इस पर सावित्री ने कहा -" पिताजी ! आर्य कन्याएं जीवन में एक ही बार अपने पति का चयन करती है । मैंने भी सत्यवान को मन से अपना पति स्वीकार कर लिया है, अब चाहे वो अल्पायु हो या दीर्घायु, मैं किसी अन्य को हृदय में स्थान नहीं दे सकती।"
सावित्री ने आगे कहा - " पिताजी, आर्य कन्याएं अपना पति एक बार चुनती है।राजा एक बार ही आज्ञा देते है, पण्डित एक बार प्रतिज्ञा करते है तथा कन्यादान भी एक बार किया जाता है।अब चाहे जो हो सत्यवान ही मेरा पति होगा।"
सावित्री के ऐसे दृढ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया।सावित्री ने नारद जी से अपने पति की मृत्यु का समय ज्ञात कर लिया था। सावित्री अपने पति और सास - ससुर की सेवा करती हुई वन में रहने लगी ।
समय बीतता गया और सावित्री बारह वर्ष की हो गयी। नारद जी के वचन उसको दिन-प्रतिदिन परेशान करते रहे। आखिर जब नारदजी के कथनानुसार उसके पति के जीवन के तीन दिन बचें, तभी से वह उपवास करने लगी। नारद जी द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। प्रतिदिन की भाटी उस दिन भी सत्यवान लकड़ियां काटने के लिए चला तो सास-ससुर से आज्ञा लेकर वह भी उसके साथ वन में चल दी ।
सावित्री अपने पति सत्यवान से कहती है कि वह उसके साथ जंगल जाए। (सौजन्य: गीता प्रेस द्वारा हिंदी में महाभारत) |
वन में सत्यवान ने सावित्री को मीठे-मीठे फल लेकर दिये और स्वयं एक वृक्ष पर लकड़ियां काटने के लिए चढ़ गया । वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह वृक्ष से निचे उतर आया। सावित्री ने उसे पास के बड़ के वृक्ष के नीचे लिटाकर सर अपनी गोद में रख लिया।सावित्री का हृदय काँप रहा था।
यम सत्यवान की आत्मा को लेने आता है और सावित्री उसका पीछा करती है। (सौजन्य: गीता प्रेस द्वारा महाभारत) |
तभी उसने दक्षिण दिशा से यमराज को आते देखा।यमराज और उनके दूत धर्मराज सत्यवान के जीव को लेकर चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल पड़ी। पीछा करती सावित्री को यमराज ने समझकर वापस लौट जाने को कहा । परन्तु सावित्री ने कहा - " हे यमराज ! पत्नी के पत्नीत्व की सार्थकता इसी में है कि वह पति का छाया के सामान अनुसरण करे। पति के पीछे जाने जाना ही स्त्री धर्म है । पतिव्रत के प्रभाव से और आपकी कृपा से कोई मेरी गति नहीं रोक सकता यह मेरी मर्यादा है ।इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना आपके लिए शोभनीय नहीं है ।"
सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने उससे उसके पति के प्राणों के अतिरिक्त कोई वरदान मांगने को कहा । सावित्री ने यमराज से अपने सास-ससुर की आँखों की खोई हुई ज्योति तथा दीर्घायु मांग ली ।यमराज "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए। फिर भी सावित्री ने यमराज का पीछा नहीं छोड़ा ।यमराज ने उसे फिर वापस जाने को कहा।इसपर सावित्री ने कहा -" हे धर्मराज !मुझे अपने पति के पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है।पति के बिना नारी जीवन को कोई सार्थकता नहीं है ।हम पति-पत्नी भिन्न-भिन्न मार्ग कैसे जा सकते है ।पति का अनुगमन मेरा कर्तत्व है।"
यमराज ने सावित्री के पतिव्रत धर्म की निष्ठा देख कर पुनः वर मांगने को कहा। सावित्री ने अपने सास-ससुर के खोये हुए राज्य की प्राप्ति तथा सौ भाइयों की बहन होने का वर माँगा । यमराज पुनः "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए। परन्तु सावित्री अब भी यमराज का पीछा किये जा रही थी। यमराज ने फिर से उसे वापस लौट जाने को कहा, परन्तु सावित्री अपने प्रण पर अड़िग रही।
तब यमराज ने कहा -" हे देवी ! यदि तुम्हारे मन में अब भी कोई कामना है तो कहो। जो माँगोगी वही मिलेगा। " इस पर सावित्री ने कहा- "यदि आप सच में मुझ पर प्रसन्न है और सच्चे हृदय से वरदान देना चाहते है तो मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान दें।" यमराज "तथास्तु " कहकर आगे बढ़ गए।
यमराज ने पीछे मुड़कर देखा और सावित्री से कहा- " अब आगे मत बढ़ो। तुम्हे मुंहमांगा वर दें चूका हूँ, फिर भी मेरा पीछा क्यों कर रही हो?
सावित्री बोली - "धर्मराज ! अपने मुझे सौ पुत्रों की माँ होने का वरदान तो दें दिया, पर क्या मैं पति के बिना संतान को जन्म दें सकती हूँ? मुझे मेरा पति वापस मिलना ही चाहिए, तभी मैं आपका वरदान पूरा कर सकूँगी। "
यम सत्यवान की आत्मा को मुक्त करता है और सावित्री अपने पति के साथ लौटती है। (सौजन्य: गीता प्रेस द्वारा महाभारत) |
सावित्री की धर्मनिष्ठा, पतिभक्ति और शक्तिपूर्ण वचनों की सुनकर यमराज नें सत्यवान के जीव को मुक्त कर दिया । सावित्री को वर देकर यमराज अंर्तध्यान हो गए । सावित्री उसी वट वृक्ष के नीचे पहुंची जहाँ सत्यवान का शरीर पड़ा था। सावित्री ने प्रणाम करके जैसे ही वट वृक्ष की परिक्रमा पूर्ण की वैसे ही सत्यवान के मृत शरीर जीवित हो उठा। दोनों हर्षातुर से घर की ओर चल पड़े।
प्रसन्नचित सावित्री अपने पति सहित सास-ससुर के पास गई।उनकी नेत्र ज्योति वापस लौट आई थी ।उनके मंत्री उन्हें खोज चुके थे ।राजा द्युमत्सेन ने पुनः अपना राज सिंहासन संभाल लिया था।
उधर महाराज अश्वसेन सौ पुत्रों के पिता हुए और सावित्री सौ भाइयों की बहन। यमराज के वरदान से सावित्री सौ पुत्रों की माँ बनी। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत का पालन करते हुए अपने पति के कुल एवं पितृकुल दोनों का कल्याण कर दिया। सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज सुख भोगते रहे और चारों दिशाओं में सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति गूंज उठी ।
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