भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के रुप में मनाई जाती है इसे को भगवान श्रीगणेश चतुर्थी व्रत किए जाने का विधान रहा है। मान्यता है कि इसी तिथि का संबंध भगवान गणेश जी के जन्म से है तथा यह तिथि भगवान गणेश जी को अत्यंत प्रिय है। ज्योतिषानुसार भी श्रीगणेश को चतुर्थी का स्वामी कहा गया है। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है। इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है। इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है। जिस समय गणेश चतुर्थी (भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि) मनाई जाती है अर्थात उसी समय चौरचन भी मनाया जाता है। चौरचन के त्यौहार को चौठ चंद्र त्यौहार भी कहा जाता है। विशेष रूप से यह त्योहार बिहार के मिथिला में मनाया जाता है। यहां पर पूरी धूमधाम से गणेश चतुर्थी के साथ-साथ चौरचन का त्यौहार मनाया जाता है।बिहार में मिथिला के अलावा भोजपुर, सीमांचल और कोसी में मनाया जाता है। चाहे वह छठ में सूर्य की उपासना हो या चौरचन में चांद की पूजा का विधान हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। बिहार के लोगों का जीवन प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा है, उन्हें प्रकृति से जीवन के निर्वहन करने के लिए सभी चीजें मिली हुई हैं और वे लोग इसका पूरा सम्मान करते हैं। इस प्रकार यहां की संस्कृति में प्रकृति की पूजा उपासना का विशेष महत्व है और इसका अपना वैज्ञानिक आधार भी है। इस त्योहार पर चंद्र देव की पूजा अर्चना की जाती है क्योंकि कहते है कि जो व्यक्ति इस दिन शाम के समय भगवान गणेश के साथ-साथ चंद्र देव की पूजा करते हैं वह चंद्र दोष से मुक्त हो जाते हैं लेकिन इस बार तिथियों के उलझन की वजह से गणेश चतुर्थी और चौठ चंद्र पर्व अलग-अलग दिन मनाया जा रहा है। मुख्य रूप से बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में मनाया जाने वाला चौठ चंद्र पर्व इस बार 30 अगस्त को मनाया जाएगा और उगते हुए चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाएगा। भाद्र शुक्ल चतुर्थी तिथि को चंद्रमा को देखना दोष है। इसलिए पूरे भारत में इस दिन चंद्रमा का दर्शन करने से लोग परहेज करते हैं। कहीं- कहीँ तो इस रोज चंद्रमा के ऊपर ढ़ेला फेंकने की भी परंपरा है।इसी दिन कलंक चतुर्थी का पर्व भी मनाया जाएगा।कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण भी इस तिथि पर चंद्र दर्शन करने के पश्चात मिथ्या कलंक के भागी बने।
ऐसी मान्यताएं है कि चौठ चंद्र व्रत की उपासना करने से इच्छित मनोकामना की प्राप्ति होती है। कुछ लोग दरभंगा महाराज द्वारा इस पर्व को शुरू करने की बात कहते हैं। स्कन्द पुराण में भी चौठ-चंद्र पर्व की पद्धति व कथा का वृहत वर्णन किया गया है। यह पर्व सामान्यतः महिलाएं ही करतीं है। अष्टदल अरिपन पर पूजा सामग्रियों को रखकर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ विधिपूर्वक पूजा करतीं है। पूजनोपरांत फल व पकवान व दही के साथ नमः सिंह प्रसेन मवधित सिंहो जाम्बवताहतः सुकुमारक मारोदीह तव व्येषस्यमंक मंत्र के साथ चंद्रमा की आराधना की जाती है। तदुपरांत विसर्जन होता है। इस पर्व में शाम के समय उगते चंद्रमा को फल, दही आदि सामग्रियों के साथ दर्शन किया जाता है। पूजा के दौरान शाम का समय बड़ा मनोहारी लगता है।
चौरचन पूजा कब मनाई जाती है और मुहूर्त क्या है? Chaurchan Festival Date and Muhurat:-
चतुर्थी तिथि प्रारंभ: 30 अगस्त, दोपहर 03:34 से
चतुर्थी तिथि समाप्त: 31 अगस्त, दोपहर 03:23 तक.
कलंक चतुर्थी शुभ पूजा मुहूर्त: 30 अगस्त, प्रातः 09:10 से दोपहर 01:57 तक
वर्जित चंद्र दर्शन काल: 30 अगस्त, दोपहर 03:33 से रात्रि 08:40 तक
गणेश चतुर्थी और चौठ चंद्र की तिथि पर अंतर क्यों
शास्त्रों के अनुसार, माना जाता है कि गणेश जी का जन्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को दोपहर के समय हुआ था। इसलिए गणेश चतुर्थी का पर्व उसी दिन मनाया जाता है जिस दिन दोपहर के समय चतुर्थी होती है। पंचांग के अनुसार, इस साल 30 अगस्त को चतुर्थी तिथि का आरंभ दोपहर में 3 बजकर 34 मिनट से हो रहा है जबकि 31 अगस्त को चतुर्थी तिथि सूर्योदय से दोपहर 3 बजकर 23 मिनट तक है। इसलिए 31 अगस्त को गणेश प्रतिमा की स्थापना करना शुभ माना जा रहा है यह शास्त्र के अनुसार भी सही है और इसी दिन सिद्धि विनायक व्रत किया जाएगा।
वहीं चौठ चंद्र की बात करें तो इसका संबंध चंद्रमा से हैं ; 31 अगस्त की रात को चतुर्थी तिथि नहीं होगी जबकि 30 अगस्त को रात के समय चतुर्थी तिथि रहेगी। इस कारण 30 अगस्त को चौठ चंद्र और कलंक चतुर्थी का पर्व मनाया जाएगा।
चौरचन त्योहार से जुड़ी हुई कथा
एक पुरातन कथा अनुसार, एक दिन भगवान गणेश अपने वाहन मूषक के साथ कैलाश का भ्रमण कर रहे थे। तभी अचानक उन्हें चंद्र देव के हंसने की आवाज आई। भगवान गणेश को उनके हंसने का कारण समझ में नहीं आया इसीलिए उन्होंने चंद्रदेव से इसका कारण पूछा। चंद्रदेव ने कहा कि भगवान गणेश का विचित्र रूप देखकर उन्हें हंसी आ रही है, साथ ही उन्होंने अपने रूप की प्रशंसा करनी शुरु कर दी। मजाक उड़ाने की इस प्रवृत्ति को देखकर गणेश जी को काफी गुस्सा आया। उन्होंने चंद्र देव को श्राप दिया और कहा कि जिस रूप का उन्हें इतना अभिमान है वह रूप आज से करूप हो जाएगा। कोई भी व्यक्ति जो चंद्रदेव को इस दिन देखेगा, उसे झूठा कलंक लगेगा। भले ही व्यक्ति का कोई अपराध ना भी हो परंतु यदि वह इस दिन चंद्र देव को देख लेगा तो वह अपराधी ही कहलाएगा।
यह बात सुनते ही चंद्रदेव का अभिमान खत्म हो गया और वह भगवान गणेश के सामने क्षमा मांगने लगे। भगवान गणेश को खुश करने के लिए भाद्रपद की चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की तथा उनके लिए व्रत रखा। भगवान गणेश जी के लिए चंद्र देव को पश्चाताप करते हुए देखकर भगवान गणेश ने चंद्रदेव को माफ कर दिया और कहा कि वह अपने रात को वापस तो नहीं ले सकते परंतु वह इसका असर कम कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यदि चंद्र देव के झूठे आरोप से किसी व्यक्ति को बचना है तो उसे गणेश चतुर्थी की शाम को चंद्रमा की पूजा भी करनी है, इस तरह से वह कलंक से बच जाएगा। इस तरह करने से व्यक्ति के जीवन पर लगने वाला कलंक निष्कलंक हो जाएगा। उसी समय से गणेश चतुर्थी के दिन चौरचन भी मनाया जाता है।
द्वितीय चौथ कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार सत्राजित ने भगवान सूर्य की उपासना की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी स्यमन्तक नामक अमूल्य मणि उसे दे दी। एक दिन जब कृष्ण साथियों के साथ चौसर खेल रहे थे तो सत्राजित स्यमन्तक मणि मस्तक पर धारण किए उनसे भेंट करने पहुंचे। उस मणि को देखकर कृष्ण ने सत्राजित से कहा की तुम्हारे पास जो यह अलौकिक मणि है, इनका वास्तविक अधिकारी तो राजा होता है। इसलिए तुम इस मणि को हमारे राजा उग्रसेन को दे दो। यह बात सुन सत्राजित बिना कुछ बोले ही वहाँ से उठ कर चले गए। सत्राजित ने स्यमन्तक मणि को अपने घर के मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि रोजाना आठ भार सोना देती थी। जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे।
एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लिये गया। वन में प्रसेनजित पर एक सिंह ने हमला कर दिया जिसमें वह मारा गया। सिंह अपने साथ मणि भी ले कर चला गया। उस सिंह को ऋक्षराज जामवंत ने मारकर वह मणि प्राप्त कर ली और अपनी गुफा में चला गया। जामवंत ने उस मणि को अपने बालक को दे दिया जो उसे खिलौना समझ उससे खेलने लगा।
जब प्रसेनजित लौट कर नहीं आया तो सत्राजित ने समझा कि उसके भाई को कृष्ण ने मारकर मणि छीन ली है। कृष्ण जी पर चोरी के सन्देह की बात पूरे द्वारिकापुरी में फैल गई।अपने उपर लगे कलंक को धोने के लिए वे नगर के प्रमुख यादवों को साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मणि की खोज में निकले। वन में उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि का कहीं पता नहीं चला। वहाँ निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे। सिंह के पदचिन्हों के सहारे आगे बढ़ने पर उन्हें मरे हुए सिंह का शरीर मिला।
वहाँ पर रीछ के पैरों के पद-चिन्ह भी मिले जो कि एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि तुम लोग यहीं रुको। मैं इस गुफा में प्रवेश कर मणि ले जाने वाले का पता लगाता हूँ। इतना कहकर वे सभी यादवों को गुफा के मुख पर छोड़ उस गुफा के भीतर चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि वह मणि एक रीछ के बालक के पास है जो उसे हाथ में लिए खेल रहा था। श्री कृष्ण ने उस मणि को उठा लिया। यह देख कर जामवंत अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटा। जामवंत और श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध होने लगा। जब कृष्ण गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरांत वहाँ से द्वारिकापुरी वापस आ गये तथा समस्त वृतांत वासुदेव और देवकी से कहा। वासुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा।
श्री कृष्ण और जामवंत दोनों ही पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाईस दिन बीत गए। कृष्ण की मार से महाबली जामवंत की नस टूट गई। वह अति व्याकुल हो उठा और अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगा। जामवंत के द्वारा श्री राम के स्मरण करते ही भगवान श्री कृष्ण ने श्री रामचन्द्र के रूप में उसे दर्शन दिये। जामवंत उनके चरणों में गिर गया और बोला, “हे भगवान! अब मैंने जाना कि आपने यदुवंश में अवतार लिया है.” श्री कृष्ण ने कहा, “हे जामवंत! तुमने मेरे राम अवतार के समय रावण के वध हो जाने के पश्चात मुझसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की थी और मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हारी इच्छा अपने अगले अवतार में अवश्य पूरी करूँगा। अपना वचन सत्य सिद्ध करने के लिये ही मैंने तुमसे यह युद्ध किया है।” जामवंत ने भगवान श्री कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति की और अपनी कन्या जामवंती का विवाह उनसे कर दिया।
कृष्ण जामवंती को साथ लेकर द्वारिका पुरी पहुँचे। उनके वापस आने से द्वारिका पुरी में चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई। श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाकर उसकी मणि उसे वापस कर दी। सत्राजित अपने द्वारा श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अति लज्जित हुआ और पश्चाताप करने लगा। प्रायश्चित के रूप में उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी। किन्तु शरणागत वत्सल श्री कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके पुनः सत्राजित को वापस कर दिया।
प्रजा को जब सत्य का पता चलता है तो वह श्री कृष्ण से क्षमा याचना करती है। यद्यपि यह कलंक मिथ्या सिद्ध होता है परन्तु इस दिन चांद के दर्शन करने से भगवान श्री कृष्ण को भी मणि चोरी का कलंक लगा था और श्रीकृष्ण जी को अपमान का भागी बनना पड़ता है।
चौरचन 2022 पूजा विधि
- इस दिन सुबहसे लेकर शाम तक व्रत रखे जाते हैं। महिलाएं अपने पुत्रों की दीर्घायु के लिए यह व्रत रखती हैं।
- शाम तक व्रत रखने के बाद, शाम के समय घर के आंगन को गाय के गोबर से लिप कर साफ किया जाता है।
- इसके बाद कच्चे चावल को पीसकर रंगोली तैयार की जाती है और इस रंगोली से आंगन को सजाया जाता है।
- इसके बाद केले के पत्ते की मदद से गोलाकार चांद बनाया जाता है।
- इस त्योहार पर तरह-तरह के मीठे पकवान जैसे की खीर मिठाई गुझिया और फल आदि रखे जाते हैं।इस त्यौहार में दही का काफी ज्यादा महत्व है। पूजा में दही का शामिल करना बहुत जरूरी माना जाता है।
- पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके रोहिणी नक्षत्र सहित चतुर्थी में चंद्रमा की पूजा की जाती है।
- पूजा करने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है।
- इसके बाद घर में जितने भी लोग है, उतनी ही पकवानों से भरी डाली और दही के बर्तन में रखे जाते हैं।
- इस मंत्र के जाप से पूरा आंगन गुंजमान हो जाता है :-
नमः सिंह प्रसेन मवधित सिंहो जाम्बवताहतः!
सुकुमारक मारोदीह तव व्येषस्यमंक!!
- इसके बाद एक-एक करके डाली, दही के बर्तन, केला खीर आदि को हाथों में उठा कर मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।
- इस मंत्र का जाप कर प्रणाम करते हैं-
नम: शुभ्रांशवे तुभ्यं द्विजराजाय ते नम।
रोहिणीपतये तुभ्यं लक्ष्मीभ्रात्रे नमोऽस्तु ते।।
- इसके बाद निम्नलिखित मंत्र उच्चारण के साथ साथ चंद्रमा को यह सारे पकवान समर्पित किए जाते हैं।
दिव्यशङ्ख तुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम्!
नमामि शशिनं भक्त्या शंभोर्मुकुट भूषणम्!!
- फिर परिवार के सभी सदस्य हाथ में फल लेकर दर्शन कर उनसे निर्दोष व कलनमुक्त होने की कामना करते हैं।
- प्रार्थना मंत्र-
मृगाङ्क रोहिणीनाथ शम्भो: शिरसि भूषण।
व्रतं संपूर्णतां यातु सौभाग्यं च प्रयच्छ मे।।
रुपं देहि यशो देहि भाग्यं भगवन् देहि मे।
पुत्रोन्देहि धनन्देहि सर्वान् कामान् प्रदेहि मे।।
- एक तरह से पूजा तथा अनुष्ठान पूरे हो जाते हैं, भक्त अपना व्रत खोल लेते हैं।
चौरचन पूजा के दौरान ध्यान देने योग्य बातें
- जिस दिन चौरचन का त्योहार होता है, उस दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए।
- सुबह उठने के बाद नित्यक्रम क्रियाएं पूरा करने के बादस्नान करना होता है।
- स्नान करने के बाद व्रत आरंभ कर दिया जाता है, जो कि शाम तक करना होता है।
- इस दिन सभी से प्रेम पूर्वक बात करनी चाहिए।
- इस दिन मांसाहार भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए और ना ही नशे वाली वस्तु का सेवन करना चाहिए।
- शाम के समय व्रत तोड़ने के पश्चात सात्विक भोजन का ही सेवन करना चाहिए।
- इस दिन दान दक्षिणा करना काफी शुभ माना जाता है, इसलिए अपनी इच्छा अनुसार गरीबों को दान करना चाहिए।
- चौरचन की पूजा पूरी विधि से करनी चाहिए तभी फल की प्राप्ति होती है। विधिपूर्वक पूजा करने से ही भगवान गणेश के साथ-साथ चंद्र देव प्रसन्न होते हैं और लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
चौरचन के दिन दही का महत्व
चौरचन की पूजा के दौरान दही का काफी महत्व है; इसीलिए इस दिन मिट्टी के बर्तन में दही जमाया जाता है। कहते हैं कि इस तरह करने से दही का स्वाद बहुत ही खास हो जाता है। इसी दही को पूजा के दौरान इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा बांस के बर्तन में विशेष खीर तैयार की जाती है, जिसका भोग चंद्रदेव को लगाया जाता है।
मिथिला में चौरचन लोकपर्व मनाने की परंपरा मिथिला नरेश के कलंकमुक्त होने पर शुरु हुआ
16 वीं शताब्दी से ही मिथिला में ये लोक पर्व मनाया जा रहा है। मिथिला नरेश महाराजा हेमांगद ठाकुर के कलंक मुक्त होने के अवसर पर महारानी हेमलता ने कलंकित चांद को पूजने की परंपरा शुरु की, जो बाद में मिथिला का लोकपर्व बन गया। छठ पर्व की तरह ही हर जाति हर वर्ग के लोग इस पर्व को हर्षोल्लाष पूर्वक मानते हैं। छठ में जहाँ हम सूर्य की पूजा करते हैं, वहीं इस दिन हम चन्द्रमा की पूजा करते हैं। कहते हैं कि इसदिन चन्द्रमा का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए। यथासंभव हाथ में फल अथवा मिठाई लेकर चन्द्र दर्शन करने से मनुष्य का जीवन दोषमुक्त व कलंकमुक्त हो जाता है।
चौरचन की शुरुआत के पीछे की कहानी यह है कि मुगल बादशाह अकबर ने तिरहुत की नेतृत्वहीनता और अराजकता को खत्म करने के लिए 1556 में महेश ठाकुर को मिथिला का राज सौंपा। बडे भाई गोपाल ठाकुर के निधन के बाद 1568 में हेमांगद ठाकुर मिथिला के राजा बने, लेकिन उन्हें राजकाज में कोई रुचि नहीं थी। उनके राजा बनने के बाद लगान वसूली में अनियमितता को लेकर दिल्ली तक शिकायत पहुंची। राजा हेमांगद ठाकुर को दिल्ली तलब किया गया। दिल्ली का सुल्तान यह मानने को तैयार नहीं था कि कोई राजा पूरे दिन पूजा और अध्ययन में रमा रहेगा और लगान वसूली के लिए उसे समय ही नहीं मिलेगा। लगान छुपाने के आरोप में हेमानंद को जेल में डाल दिया गया।
कारावास में हेमांगद पूरे दिन जमीन पर गणना करते रहते थे। पहरी पूछता था तो वो चंद्रमा की चाल समझने की बात कहते थे। धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि हेमांगद ठाकुर की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है और इन्हें इलाज की जरुरत है। यह सूचना पाकर बादशाह खुद हेमांगद को देखने कारावास पहुंचे। जमीन पर अंकों और ग्रहों के चित्र देख पूछा कि आप पूरे दिन यह क्या लिखते रहते हैं। हेमांगद ने कहा कि यहां दूसरा कोई काम था नहीं सो ग्रहों की चाल गिन रहा हूं। करीब 500 साल तक लगनेवाले ग्रहणों की गणाना पूरी हो चुकी है। बादशाह अकबर ने तत्काल हेमांगद को ताम्रपत्र और कलम उपलब्ध कराने का आदेश दिया और कहा कि अगर आपकी भविष्यवाणी सही निकली, तो आपकी सजा माफ़ कर दी जाएगी।
हेमांगद ने बादशाह को माह, तारीख और समय बताया। उन्होंने चंद्रग्रहण की भविष्यवाणी की थी। उनके गणना के अनुसार चंद्रग्रहण लगा और बादशाह ने उनकी सजा माफ़ कर दी। जेल से रिहा होने के बाद हेमांगद ठाकुर जब मिथिला आये तो महारानी हेमलता ने कहा कि आज चांद कलंकमुक्त हो गये हैं, हम उनका दर्शन और पूजा करेंगे। इसी मत के साथ मिथिला के लोगों ने भी अपना राज्य और अपने राजा की वापसी की ख़ुशी में चतुर्थी चन्द्र की पूजा प्रारम्भ की।
आज ये मिथिला के बाहर भी मनाया जाता है और एक लोक पर्व बन चुका है।
बिहार लोकगीत के सभी पाठकों को चौठ चंद्र व्रत की शुभकामनाएं !
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