गणेश चतुर्थी की पौराणिक एवं प्रचलित कथाएं : व्रत में सुनने से दूर होंगे सारे संकट, मिलेगा अपार सुख



'श्री गणेशाय नम:'

गणेश चतुर्थी व्रत करने से घर-परिवार में आ रही विपदा दूर होती है, कई दिनों से रुके मांगलिक कार्य संपन्न होते है तथा भगवान श्री गणेश असीम सुखों की प्राप्ति कराते हैं। माह की किसी भी चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश की पूजा के दौरान संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत की कथा पढ़ना अथवा सुनना जरूरी होता है। इससे संबंधित पांच कथाएं प्रचलित हैं।आइए पढ़ें...

गणेश चतुर्थी व्रत की पहली कथा :-

भगवान शंकर और मां पार्वती जी के पुत्र और कार्तिक स्वामी के भाई सर्वप्रथम पूज्‍य गणपति महाराज हैं। जिनका वाहन मूषक है। कोई भी शुभ प्रसंग हो या धार्मिक प्रसंग हो, गणपति महाराज की पूजा सर्वप्रथम कि जाती है। गणपति महाराज सर्व देव में एक हैं जिनके हाथों में शस्त्र की जगह लड्डू होता हैं। गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्र-दर्शन नहीं किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से मिथ्या दोष अथवा मिथ्या कलंक लगता है जिसकी वजह से इस दिन चंद्र दर्शन करने से चोरी का झूठा कलंक लगता है। 


एक बार गणपति जी देव लोक से कैलाश की ओर जा रहे थे। वहां चंद्र देव के समीप से निकलते वक्त चंद्र देव ने गणेश जी को  देखकर हंसने लगे और बोले वाह भाई वाह बड़ा पेट और लंबी सूंड कह कर गणपति जी का उपहास करने लगे। यह सब देखते हुए भी गणपति महाराज कुछ नहीं बोले और आगे चलने लगे। लेकिन चंद्र देव अपनी इस हरकत से बाज नहीं आए और फिर एक बार उन्होंने उपहास करना शुरू कर दिया। भगवान गणेश उस वक्त भी शांत रहे। चंद्र देव अपने घमंड में चूर थे, उनका यह उपहास बंद होने का नाम नहीं ले रहा था। इतने में ही गणेश जी की आंखें लाल गुम हो गई और गुस्‍से में आकर चंद्र देव को श्राप दिया। हे चंद्र तू अपने रूप के अभिमान में चूर हो गया है। अब तो तुझे शिक्षा देनी है पड़ेगी। ऐसा सोच कर गणपति महाराज क्रोधित होकर बोले, हे चंद्र देव तू अपने रूप के अभिमान में मद हो गया है।



मैं तुझे श्राप देता हूं कि आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन तीनो लोक में कोई तेरा मुख नहीं देखेगा और यदि कोई भूलवश भी तेरे मुख को देख लेगा, तो वह भी कलंकित हो जाएगा। श्राप सुनते ही चंद्र देव का गर्व पिघल गया और भयभीत होकर कंपन करने लगे। गणपति देव से क्षमा मांगते हुए बोले अरे मुझसे अपराध हो गया है, मुझे अभिमान के कारण वाणी पर संयम नहीं रहा। इतना कहते ही गणपति जी वहां से अंत धन्य हो गए। चंद्र देव को अपने किए का पछतावा होने लगा और अब क्या हो सकता है? और अचानक से विश्व भर में अंधेरा फेल गया। देवता लोग घबराने लगे। यह सब क्या हो रहा है। सभी देवता मिलकर भगवान के पास गए और बोले महाराज ! चंद्र देव के श्राप का निवारण बतलाइएं भगवान बोले देवताओं सुनो यह तो गणेश जी का श्राप है। इसलिए गणेश जी के अलावा श्राप का निवारण कोई भी बता नहीं सकता। इसलिए आप सब गणपति जी के पास जाओ। उपरांत गणपति जी तुम पर प्रसन्न हो ऐसी युक्ति भी बताता हूं बस सुनो। 

तुम सब चंद्र देव के पास जाकर कहना की वह भाद्रपद चतुर्थी का व्रत करें और इस व्रत की विधि इस प्रकार है। सर्वप्रथम गणपति जी की सोने के मूर्ति बनाएं। अगर सोने की न बनाओ तो स्थिति अनुसार कोई भी धातु की या मिट्टी के मूर्ति बनाएं और यह भी न संभावना हो तो गणपति जी की तस्वीर लें। फिर एकम से चौथ में जो दिन शुभ हो उस दिन शुभ मुहूर्त में गणेश जी की स्थापना करें। फिर उसका पूजन करें। लड्डू के नैवेद्य का भोग लगाएं। फिर धाम धूम से गणपति जी की मूर्ति को जल में विसर्जित करें और ब्राह्मणों को भोजन कराएं, दान करें। ऐसा करने से गणपति महाराज की कृपा चंद्र देव पर होगी। गणपति महाराज उस पर प्रसन्न होंगे और उनके श्राप का निवारण करेंगे।

देवताओं के कहने पर चंद्र देव ने गणेश चौथ का विधि अनुसार व्रत किया और गणपति जी उस पर प्रसन्न हुए। चंद्र देव ने गणपति जी से क्षमा मांगी। तब गणेश जी ने उन पर कृपा की और कहा हे चंद्र ! तू मेरे श्राप से मुक्त तो नहीं होगा पर तूने मेरा व्रत किया है अतः मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हूं और इसलिए मैंने तुझे दिए हुए श्राप का कुछ भाग कम करता हूं। आज से जो मनुष्य भाद्रपक्ष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन करेगा, तो वह कलंकित हो जाएगा, परन्तु वह जातक श्री गणेशाय नम: का 108 बार जप करके व श्री गणपति को दूर्वा सिंदूर अर्पित करके विघ्न का निवारण कर सकता है औऱ उसे इस कलंक आरोप से मुक्ति मिल जाएगी।


गणेश चतुर्थी व्रत की दूसरी कथा :-

पौराणिक एवं प्रचलित श्री गणेश कथा के अनुसार एक बार देवता कई विपदाओं में घिरे थे। तब वह मदद मांगने भगवान शिव के पास आए। उस समय शिव के साथ कार्तिकेय तथा गणेशजी भी बैठे थे। देवताओं की बात सुनकर शिव जी ने कार्तिकेय व गणेश जी से पूछा कि तुम में से कौन देवताओं के कष्टों का निवारण कर सकता है। तब कार्तिकेय व गणेश जी दोनों ने ही स्वयं को इस कार्य के लिए सक्षम बताया।

इस पर भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेते हुए कहा कि तुम दोनों में से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करने जाएगा।


भगवान शिव के मुख से यह वचन सुनते ही कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गए, परंतु गणेश जी सोच में पड़ गए कि वह चूहे के ऊपर चढ़कर सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे तो इस कार्य में उन्हें बहुत समय लग जाएगा। तभी उन्हें एक उपाय सूझा। गणेश अपने स्थान से उठें और अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करके वापस बैठ गए। परिक्रमा करके लौटने पर कार्तिकेय स्वयं को विजेता बताने लगे। तब शिव जी ने श्री गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा ना करने का कारण पूछा।

तब गणेश ने कहा - 'माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक हैं।' यह सुनकर भगवान शिव ने गणेश जी को देवताओं के संकट दूर करने की आज्ञा दी। इस प्रकार भगवान शिव ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देगा उसके तीनों ताप यानी दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होंगे। इस व्रत को करने से व्रतधारी के सभी तरह के दुख दूर होंगे और उसे जीवन के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी। चारों तरफ से मनुष्य की सुख-समृद्धि बढ़ेगी। पुत्र-पौत्रादि, धन-ऐश्वर्य की कमी नहीं रहेगी।


गणेश चतुर्थी व्रत की तीसरी कथा :-

एक समय की बात है राजा हरिश्चंद्र के राज्य में एक कुम्हार था। वह मिट्टी के बर्तन बनाता, लेकिन वे कच्चे रह जाते थे। एक पुजारी की सलाह पर उसने इस समस्या को दूर करने के लिए एक छोटे बालक को मिट्टी के बर्तनों के साथ आंवा में डाल दिया।

उस दिन संकष्टी चतुर्थी का दिन था। उस बच्चे की मां अपने बेटे के लिए परेशान थी। उसने गणेशजी से बेटे की कुशलता की प्रार्थना की।


दूसरे दिन जब कुम्हार ने सुबह उठकर देखा तो आंवा में उसके बर्तन तो पक गए थे, लेकिन बच्चे का बाल बांका भी नहीं हुआ था। वह डर गया और राजा के दरबार में जाकर सारी घटना बताई।

इसके बाद राजा ने उस बच्चे और उसकी मां को बुलवाया तो मां ने सभी तरह के विघ्न को दूर करने वाली संकष्टी चतुर्थी का वर्णन किया। इस घटना के बाद से महिलाएं संतान और परिवार के सौभाग्य के लिए संकट चौथ का व्रत करने लगीं।


गणेश चतुर्थी व्रत की चौथी कथा : -


एक समय की बात है कि विष्णु भगवान का विवाह लक्ष्‍मीजी के साथ निश्चित हो गया। विवाह की तैयारी होने लगी। सभी देवताओं को निमंत्रण भेजे गए, परंतु गणेश जी को निमंत्रण नहीं दिया, कारण जो भी रहा हो। अब भगवान विष्णु की बारात जाने का समय आ गया। सभी देवता अपनी पत्नियों के साथ विवाह समारोह में आए। उन सबने देखा कि गणेशजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। तब वे आपस में चर्चा करने लगे कि क्या गणेशजी को नहीं न्योता है? या स्वयं गणेश जी ही नहीं आए हैं? सभी को इस बात पर आश्चर्य होने लगा। तभी सबने विचार किया कि विष्णु भगवान से ही इसका कारण पूछा जाए।

विष्णु भगवान से पूछने पर उन्होंने कहा कि हमने गणेश जी के पिता भोलेनाथ महादेव को न्योता भेजा है। यदि गणेशजी अपने पिता के साथ आना चाहते तो आ जाते, अलग से न्योता देने की कोई आवश्यकता भी नहीं थीं। दूसरी बात यह है कि उनको सवा मन मूंग, सवा मन चावल, सवा मन घी और सवा मन लड्डू का भोजन दिनभर में चाहिए। यदि गणेशजी नहीं आएंगे तो कोई बात नहीं। दूसरे के घर जाकर इतना सारा खाना-पीना अच्छा भी नहीं लगता।

इतनी वार्ता कर ही रहे थे कि किसी एक ने सुझाव दिया- यदि गणेश जी आ भी जाएं तो उनको द्वारपाल बनाकर बैठा देंगे कि आप घर की याद रखना। आप तो चूहे पर बैठकर धीरे-धीरे चलोगे तो बारात से बहुत पीछे रह जाओगे। यह सुझाव भी सबको पसंद आ गया, तो विष्णु भगवान ने भी अपनी सहमति दे दी।

होना क्या था कि इतने में गणेश जी वहां आ पहुंचे और उन्हें समझा-बुझाकर घर की रखवाली करने बैठा दिया। बारात चल दी, तब नारद जी ने देखा कि गणेश जी तो दरवाजे पर ही बैठे हुए हैं, तो वे गणेश जी के पास गए और रुकने का कारण पूछा। गणेश जी कहने लगे कि विष्णु भगवान ने मेरा बहुत अपमान किया है। नारद जी ने कहा कि आप अपनी मूषक सेना को आगे भेज दें, तो वह रास्ता खोद देगी जिससे उनके वाहन धरती में धंस जाएंगे, तब आपको सम्मानपूर्वक बुलाना पड़ेगा।

अब तो गणेश जी ने अपनी मूषक सेना जल्दी से आगे भेज दी और सेना ने जमीन पोली कर दी। जब बारात वहां से निकली तो रथों के पहिए धरती में धंस गए। लाख कोशिश करें, परंतु पहिए नहीं निकले। सभी ने अपने-अपने उपाय किए, परंतु पहिए तो नहीं निकले, बल्कि जगह-जगह से टूट गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए।

तब तो नारद जी ने कहा- आप लोगों ने गणेश जी का अपमान करके अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें मनाकर लाया जाए तो आपका कार्य सिद्ध हो सकता है और यह संकट टल सकता है। शंकर भगवान ने अपने दूत नंदी को भेजा और वे गणेश जी को लेकर आए। गणेश जी का आदर-सम्मान के साथ पूजन किया, तब कहीं रथ के पहिए निकले। अब रथ के पहिए निकल को गए, परंतु वे टूट-फूट गए, तो उन्हें सुधारे कौन?

पास के खेत में खाती काम कर रहा था, उसे बुलाया गया। खाती अपना कार्य करने के पहले 'श्री गणेशाय नम:' कहकर गणेश जी की वंदना मन ही मन करने लगा। देखते ही देखते खाती ने सभी पहियों को ठीक कर दिया।

तब खाती कहने लगा कि हे देवताओं! आपने सर्वप्रथम गणेशजी को नहीं मनाया होगा और न ही उनकी पूजन की होगी इसीलिए तो आपके साथ यह संकट आया है। हम तो मूरख अज्ञानी हैं, फिर भी पहले गणेश जी को पूजते हैं, उनका ध्यान करते हैं। आप लोग तो देवतागण हैं, फिर भी आप गणेश जी को कैसे भूल गए? अब आप लोग भगवान श्री गणेश जी की जय बोलकर जाएं, तो आपके सब काम बन जाएंगे और कोई संकट भी नहीं आएगा। ऐसा कहते हुए बारात वहां से चल दी और विष्णु भगवान का लक्ष्मी जी के साथ विवाह संपन्न कराके सभी सकुशल घर लौट आए।

हे गणेश जी महाराज! आपने विष्णु को जैसो कारज सारियो, ऐसो कारज सबको सिद्ध करजो। बोलो गजानन भगवान की जय।


गणेश चतुर्थी व्रत की पांचवी कथा :-


श्री गणेश चतुर्थी व्रत की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव तथा माता पार्वती नर्मदा नदी के किनारे बैठे थे। वहां माता पार्वती ने भगवान शिव से समय व्यतीत करने के लिए चौपड़ खेलने को कहा। शिव चौपड़ खेलने के लिए तैयार हो गए, परंतु इस खेल में हार-जीत का फैसला कौन करेगा, यह प्रश्न उनके समक्ष उठा तो भगवान शिव ने कुछ तिनके एकत्रित कर उसका एक पुतला बनाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर दी और पुतले से कहा- 'बेटा, हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, परंतु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है इसीलिए तुम बताना कि हम दोनों में से कौन हारा और कौन जीता?'

उसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती का चौपड़ खेल शुरू हो गया। यह खेल 3 बार खेला गया और संयोग से तीनों बार माता पार्वती ही जीत गईं। खेल समाप्त होने के बाद बालक से हार-जीत का फैसला करने के लिए कहा गया, तो उस बालक ने महादेव को विजयी बताया।

यह सुनकर माता पार्वती क्रोधित हो गईं और क्रोध में उन्होंने बालक को लंगड़ा होने, कीचड़ में पड़े रहने का श्राप दे दिया। बालक ने माता पार्वती से माफी मांगी और कहा कि यह मुझसे अज्ञानतावश ऐसा हुआ है, मैंने किसी द्वेष भाव में ऐसा नहीं किया।

बालक द्वारा क्षमा मांगने पर माता ने कहा- 'यहां गणेश पूजन के लिए नागकन्याएं आएंगी, उनके कहे अनुसार तुम गणेश व्रत करो, ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे।' यह कहकर माता पार्वती शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं।

एक वर्ष के बाद उस स्थान पर नागकन्याएं आईं, तब नागकन्याओं से श्री गणेश के व्रत की विधि मालूम करने पर उस बालक ने 21 दिन लगातार गणेश जी का व्रत किया। उसकी श्रद्धा से गणेश जी प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को मनोवांछित फल मांगने के लिए कहा। उस पर उस बालक ने कहा- 'हे विनायक! मुझमें इतनी शक्ति दीजिए कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वे यह देख प्रसन्न हों।'

तब बालक को वरदान देकर श्री गणेश अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद वह बालक कैलाश पर्वत पर पहुंच गया और कैलाश पर्वत पर पहुंचने की अपनी कथा उसने भगवान शिव को सुनाई। चौपड़ वाले दिन से माता पार्वती शिवजी से विमुख हो गई थीं अत: देवी के रुष्ट होने पर भगवान शिव ने भी बालक के बताए अनुसार 21 दिनों तक श्री गणेश का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से माता पार्वती के मन से भगवान शिव के लिए जो नाराजगी थी, वह समाप्त हो गई।

तब यह व्रत विधि भगवान शंकर ने माता पार्वती को बताई। यह सुनकर माता पार्वती के मन में भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जागृत हुई। तब माता पार्वती ने भी 21 दिन तक श्री गणेश का व्रत किया तथा दूर्वा, फूल और लड्डूओं से गणेशजी का पूजन-अर्चन किया। व्रत के 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं माता पार्वतीजी से आ मिले। उस दिन से श्री गणेश चतुर्थी का यह व्रत समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत माना जाता है। इस व्रत को करने से मनुष्‍य के सारे कष्ट दूर होकर मनुष्य को समस्त सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं।

|| कथा समाप्त ||

|| बोलो गजानन भगवान की जय ||


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